जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्य तद्विदुः कृत्स्न्मध्यात्म कर्म चाखिलम् ॥29॥
जरा-वृद्धावस्था; मरण-और मृत्यु से; मोक्षाय–मुक्ति के लिए; माम्-मुझको, मेरे; आश्रित्य–शरणागति में; यतन्ति-प्रयत्न करते हैं; ये-जो; ते-ऐसे व्यक्ति; ब्रह्म-ब्रह्म; तत्-उस; विदु-जान जाते हैं; कृत्स्नम्-सब कुछ; अध्यात्मम्-जीवात्मा; कर्म-कर्म; च-भी; अखिलम् सम्पूर्ण;
BG 7.29: जो मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे बुढ़ापे और मृत्यु से छुटकारा पाने की चेष्टा करते हैं, वे ब्रह्म, अपनी आत्मा और समस्त कार्मिक गतिविधियों के क्षेत्र को जान जाते हैं।
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जैसा कि श्लोक 7.26 में कहा गया है कि भगवान को किसी की बुद्धि की सामर्थ्य से जाना नहीं जा सकता किन्तु वे जो उनके शरणागत हो जाते हैं वही उनकी कृपा प्राप्त करते हैं। भगवान जब किसी पर अपनी कृपा करते हैं तब वे सरलता से उसे जानने में सक्षम हो जाते हैं।
कठोपनिषद् में वर्णन है
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्।
(कठोपनिषद्-1.2.23)
"भगवान को न तो आध्यात्मिक उपदेशों, बुद्धि और न ही विभिन्न प्रकार की शिक्षाओं को सुनकर जाना जा सकता है। भगवान जब किसी पर अपनी कृपा करते हैं तब केवल वही भाग्यशाली आत्मा उन्हें जान पाती है" जब कोई भगवान का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तब वह भगवान के संबंध में सब कुछ जान लेता है। वेदों में भी उल्लेख किया गया है-“एकस्मिन् विजन्नाते सर्वमिदं विजन्नातं भवति" अर्थात “यदि तुम भगवान को जान जाते हो तब तुम सब कुछ जान जाओगे।"
कुछ अध्यात्मवाद के साधक आत्मज्ञान को ही चरम लक्ष्य मानते हैं। जिस प्रकार जल की बूंद महासागर का लघु अंश होती है ठीक इसी प्रकार से आत्म ज्ञान ब्रह्म ज्ञान का छोटा सा अंश है। वे जिन्हें बूंद का ज्ञान होता है, उनके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे महासागर की गहराई चौड़ाई और शक्ति को जान सकें। समान रूप से जो आत्मा को समझ लेते हैं, उनके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे भगवान को जान सकते हैं। वे जिन्हें भगवान का ज्ञान हो जाता है उन्हें स्वतः वह सब ज्ञान हो जाता है जो भगवान से संबंधित हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे जो उनकी शरण में आ जाते हैं उन्हें भगवान की कृपा से आत्मा और कार्मिक गतिविधियों के क्षेत्र का ज्ञान हो जाता है।